डॉ. ताहिर साहब के मुतल्लिक़ बहुतों ने बहुत कुछ लिखा, किसी ने रद्द में लिखा तो किसी ने दिफ़ा और हिमायत में लिखा।
अगर हम इन्साफ़ की नज़रों से देखें तो मालूम होगा कि जिन्होने हिमायत में लिखा है उनकी नज़रों पर डॉ. साहब के काम ने पर्दा डाल रखा है वर्ना उलमा -ए- अहले सुन्नत ने डॉ. साहब के मुतल्लिक़ मुत्तफिक़ा तौर पर अपना नज़रिया पेश फ़रमा दिया है जो मिज़ाज -ए- शरीयत के ऐन मुताबिक़ है।
अब तक डॉ. साहब के बारे में जो फ़तावा, अक़्वाल और नज़रियात उलमा -ए- अहले सुन्नत की जानिब से मन्ज़र -ए- आम पर आये हैं वो लोगों की रहनुमायी के लिये शाफी व काफी है, मैं फक़त इतना अर्ज़ करना चाहूंगा कि:
दस्तार के हर पेच की तहक़ी है लाज़िम
हर साहिब ए दस्तार मुअज़्ज़ज़ नहीं होता
शायर की मुराद तक भले ही मुझ कम फहम की रसायी ना हो सके लेकिन मैं इस शेर के ज़रिये ये कहना चहता हूं कि डॉ. साहब हो या आलम -ए- रूया में आइम्मा व मुहद्दिसीन से दस्तार हासिल करने वाला कोई सूफी, उनके दस्तार के हर पेच की तहक़ीक़ करना लाज़िम है क्यूँकी कभी कभी जो दिखता है वो होता नहीं और जो होता है वो दिखायी नहीं देता।
अ़ब्दे मुस्तफ़ा
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