एक होता है इत्तेफाकन किसी पर पहली नज़र पढ़ते ही उस से प्यार हो जाना और एक होता है के हम पहले से ये सोच कर निकले के हमे किसी पर अपनी नज़र को अटकाना है और किसी से प्यार करना है। इन दोनो मे बहुत फर्क है।
आज कल जो ईश्क -ए- मिजाज़ी का बाज़ार गरम है वो इसी दूसरी किस्म का है के हमे एक महबूबा या एक आशिक की तलाश है।
जिस तरह इन्सान की जिंदगी मे दीगर कई मकासिद होते है के दौलत कमानी है, शोहरत हासिल करनी है, डॉक्टर, इंजिनियर बनना है ठीक इसी तरह कई लोगों ने इसे भी जिंदगी का एक मकसद बना लिया है के हमे एक महबूब तलाश करना है फिर उसे अपने दिल की बात बतानी है, उससे बाते करनी है, मुलाकात के लिए तड़पना है और दीगर मा'मलात करने है जो इश्क -ए- मिजाज़ी मे बुनियादी अहमीयत रखते है।
ऐसी फ़िक्र लोगों के अंदर पैदा करने मे फिल्मो, ड्रामो और बेहूदा गानो का बहुत बड़ा हाथ है, यही वो चीजे है जिन्होने लोगों का बिल खुसूस नौजवानों का दिमाग भ्रष्ट कर रखा है।
अभी तो हाल ये है की जिस ने जवानी की दहेलीज पर कदम भी नही रखा वो भी इश्क -ए- मिजाज़ी मे धोका खा कर बैठा है।
अगर आप चाहते है की आप की औलाद इस बला से महफूज रहे तो उन पर और ध्यान दे।
सिर्फ ये देखना काफी नही के उसने ख़ाना खाया या नही, स्कूल गया या नही, नहाया या नही बल्क़ि ये देखें की वो किस रास्ते पर है कही ऐसा ना हो के जल जाए बाग -ए- अरमा और कानो को खबर तक ना हो!
अ़ब्दे मुस्तफ़ा
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